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रामचरित मानस खंड-10: तपस्वी सा वेश, कमर में तरकस… वन में श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण का पहला दिन

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(राम आ रहे हैं…जी हां, सदियों के लंबे इंतजार के बाद भव्य राम मंदिर बनकर तैयार है और प्रभु श्रीराम अपनी पूरी भव्यता-दिव्यता के साथ उसमें विराजमान हो रहे हैं. इस पावन अवसर पर aajtak.in अपने पाठकों के लिए लाया है तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कथा का हिंदी रूपांतरण (साभारः गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस).  इस श्रृंखला ‘रामचरित मानस’ में आप पढ़ेंगे भगवान राम के जन्म से लेकर लंका पर विजय तक की पूरी कहानी. आज पेश है इसका 10वां खंड…)

श्रीराम ने जब निषादराज गुह को घर जाने को कहा तब वह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए. मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, कुछ दिन चरणों की सेवा करके. हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहां मैं सुन्दर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूंगा. तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूंगा. उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनन्द हुआ. फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया. तब प्रभु श्रीरघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजीसहित वन को चले. उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ. लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी. प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएं करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के दर्शन किए. उस राजा का सत्य मन्त्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्रीवेणीमाधवजी सरीखे हितकारी मित्र हैं. चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रान्त ही उस राजा का सुन्दर देश है. प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत और सुन्दर गढ़ (किला) है, जिसको स्वप्न में भी पापरूपी शत्रु नहीं पा सके हैं. सम्पूर्ण तीर्थ ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं.

गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है. अक्षयवट छत्र है, जो मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है. यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके (श्याम और श्वेत) चंवर हैं, जिनको देखकर ही दुख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है. पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं. वेद और पुराणों के समूह भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणों का बखान करते हैं. पापों के समूहरूपी हाथी के मारने के लिए सिंहरूप प्रयागराज का प्रभाव कौन कह सकता है. ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी ने भी सुख पाया. उन्होंने अपने श्रीमुख से सीताजी, लक्ष्मणजी और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनाई. तदनन्तर प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बड़े प्रेम से माहात्म्य कहते हुए, श्रीराम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुन्दर मंगलों को देनेवाली है. फिर आनन्दपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करके शिवजी की पूजा की और विधिपूर्वक तीर्थदेवताओं का पूजन किया. तब प्रभु श्रीरामजी भरद्वाजजी के पास आए. उन्हें दंडवत करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया. मुनि के मन का आनन्द कुछ कहा नहीं जाता. मानो उन्हें ब्रह्मानन्द की राशि मिल गई हो.

कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें सन्तुष्ट कर दिया. फिर मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल और अंकुर लाकर दिए. सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्रीरामचन्द्रजी ने उन सुन्दर मूल फलों को बड़ी रुचि के साथ खाया. थकावट दूर होने से श्रीरामचन्द्रजी सुखी हो गए. तब भरद्वाजजी ने उनसे कोमल वचन कहे- हे राम! आपका दर्शन करते ही आज मेरा तप, तीर्थसेवन और त्याग सफल हो गया. आज मेरा जप, योग और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे सम्पूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल हो गया. लाभ की सीमा और सुख की सीमा प्रभु के दर्शन को छोड़कर दूसरी कुछ भी नहीं है. आपके दर्शन से मेरी सब आशाएं पूर्ण हो गईं. अब कृपा करके यह वरदान दीजिए कि आपके चरणकमलों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो. जबतक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता, तबतक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता. मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव-भक्ति के कारण आनन्द से तृप्त हुए भगवान श्रीरामचन्द्रजी सकुचा गए.तब अपने ऐश्वर्य को छिपाते हुए श्रीरामचन्द्रजी ने भरद्वाज मुनि का सुन्दर सुयश करोड़ों प्रकार से कहकर सबको सुनाया.

उन्होंने कहा- हे मुनीश्वर! जिसको आप आदर दें, वही बड़ा है और वही सब गुणसमूहों का घर है. इस प्रकार श्रीरामजी और मुनि भरद्वाजजी दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं. यह श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी के आने की खबर पाकर प्रयाग निवासी ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि, सिद्ध और उदासी सब श्रीदशरथजी के सुन्दर पुत्रों को देखने के लिए भरद्वाजजी के आश्रमपर आए. श्रीरामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया. नेत्रों का लाभ पाकर सब आनन्दित हो गए और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे. श्रीरामजी के सौन्दर्य की सराहना करते हुए वे लौटे. श्रीरामजी ने रात को वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके और प्रसन्नता के साथ मुनि को सिर नवाकर श्रीसीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ वे चले. चलते समय बड़े प्रेम से श्रीरामजी ने मुनि से कहा- हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएं. मुनि मन में हंसकर श्रीरामजी से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम है. फिर उनके साथ के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया. साथ जाने की बात सुनते ही चित्त में हर्षित हो कोई पचास शिष्य आ गए. सभी का श्रीरामजी पर अपार प्रेम है. सभी कहते हैं कि मार्ग हमारा देखा हुआ है. तब मुनि ने चुनकर चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृत (पुण्य) किए थे. श्रीरघुनाथजी प्रणाम कर और ऋषि की आज्ञा पाकर हृदय में बड़े ही आनन्दित होकर चले.

जब वे किसी गांव के पास होकर निकलते हैं तब स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं. जन्म का फल पाकर वे सनाथ हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर दुखी होकर लौट आते हैं. तदनन्तर श्रीरामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया. वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे. यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान किया, जो श्रीरामचन्द्रजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था. यमुनाजी के किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुन्दर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुन्दरी स्त्री आ रही है) सब अपना-अपना काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी का सौन्दर्य देखकर अपने भाग्य की बड़ाई करने लगे. उनके मन में बहुत-सी लालसाएं भरी हैं. पर वे नाम-गांव पूछते सकुचाते हैं. उन लोगों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे; उन्होंने युक्ति से श्रीरामचन्द्रजी को पहचान लिया. उन्होंने सब कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं. यह सुनकर सब लोग दुखित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजा ने अच्छा नहीं किया.

उसी अवसर पर वहां एक तपस्वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुन्दर था. उसकी गति कवि नहीं जानते. वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी था. अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया. वह दंड की भांति पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता. श्रीरामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया. उसे इतना आनन्द हुआ मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो. सब कोई देखने वाले कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं. फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा. उन्होंने प्रेम से उसको उठा लिया. फिर उसने सीताजी की चरणधूलि को अपने सिरपर धारण किया. माता सीताजी ने भी उसको अपना छोटा बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया. फिर निषादराज ने उसको दंडवत किया. श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह उस निषाद से आनन्दित होकर मिला. वह तपस्वी अपने नेत्ररूपी दोनों से श्रीरामजी की सौन्दर्य-सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनन्दित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुन्दर भोजन पाकर आनन्दित होता है. इधर गांव की स्त्रियां कह रही हैं- हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं जिन्होंने ऐसे (सुन्दर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है. श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं. तब श्रीरामचन्द्रजी ने सखा गुह को अनेकों तरह से घर लौट जाने के लिए समझाया. श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया.

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रास्ते में जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं. वे दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब अंगों में राजचिह्न देखकर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है. ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी तुमलोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ में आता है कि ज्योतिष-शास्त्र झूठा ही है. भारी जंगल और बड़े-बड़े पहाड़ों का दुर्गम रास्ता है. उसपर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है. हाथी और सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता. यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें. आप जहां तक जाएंगे वहां तक पहुंचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेंगे. इस प्रकार वे यात्री प्रेमवश पुलकित शरीर हो और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरकर पूछते हैं. किन्तु कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी कोमल विनययुक्त वचन कहकर उन्हें लौटा देते हैं. जो गांव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसापूर्वक ईर्ष्या करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान ने किस शुभ घड़ी में इनको बसाया था, जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुन्दर हो रहे हैं.

जहां-जहां श्रीरामचन्द्रजी के चरण चले जाते हैं, उनके समान इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं है. रास्ते के समीप बसने वाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं, स्वर्ग में रहने वाले देवता भी उनकी सराहना करते हैं- जो नेत्र भरकर सीताजी और लक्ष्मणजी सहित घनश्याम श्रीरामजीके दर्शन करते हैं, जिन तालाबों और नदियों में श्रीरामजी स्नान कर लेते हैं, देवसरोवर और देवनदियां भी उनकी बड़ाई करती हैं. जिस वृक्ष के नीचे प्रभु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष भी उसकी बड़ाई करते हैं. श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों की रज का स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती है. रास्ते में बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और सिहाते हैं. पर्वत, वन और पशु-पक्षियों को देखते हुए श्रीरामजी रास्ते में चले जा रहे हैं. सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्रीरघुनाथजी जब किसी गांव के पास जा निकलते हैं तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने घर और काम-काज को भूलकर तुरंत उन्हें देखने के लिए चल देते हैं. राम, लक्ष्मण और सीताजी का रूप देखकर, नेत्रों का परम फल पाकर वे सुखी होते हैं. दोनों भाइयों को देखकर सब प्रेमानन्द में मग्न हो गए. उनके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गए. उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती. मानो दरिद्रों ने चिन्तामणि की ढेरी पा ली हो. वे एक-एक को पुकारकर सीख देते हैं कि इसी क्षण नेत्रों का लाभ ले लो. कोई श्रीरामचन्द्रजी को देखकर ऐसे अनुराग में भर गए हैं कि वे उन्हें देखते हुए उनके साथ लगे चले जा रहे हैं. कोई नेत्रमार्ग से उनकी छवि को हृदय में लाकर शरीर, मन और श्रेष्ठ वाणी से शिथिल हो जाते हैं (अर्थात् उनके शरीर, मन और वाणी का व्यवहार बंद हो जाता है).

कोई बड़ की सुंदर छाया देखकर, वहां नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षणभर यहां बैठकर थकावट मिटा लीजिए. फिर चाहे अभी चले जाइएगा, चाहे सबेरे, कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं- नाथ! आचमन तो कर लीजिए. उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका अत्यंत प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील श्रीरामचंद्रजी ने मन में सीताजी को थकी हुई जानकर घड़ी भर बड़ की छाया में विश्राम किया. स्त्री-पुरुष आनन्दित होकर शोभा देखते हैं. अनुपम रूप ने उनके नेत्र और मनों को लुभा लिया है. सब लोग टकटकी लगाए श्रीरामचंद्रजी के मुखचंद्र को चकोर की तरह (तन्मय होकर) देखते हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं. श्रीरामजी का श्याम शरीर अत्यंत शोभा दे रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेवों के मन मोहित हो जाते हैं. बिजली के से रंग के लक्ष्मणजी बहुत ही भले मालूम होते हैं. वे नख से शिखा तक सुंदर हैं, और मन को बहुत भाते हैं. दोनों मुनियों के वस्त्र पहने हैं और कमर में तरकस कसे हुए हैं. कमल के समान हाथों में धनुष-बाण शोभित हो रहे हैं. उनके सिरों पर सुंदर जटाओं के मुकुट हैं; वक्षस्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुंदर मुख पर पसीने की बूंदों का समूह शोभित हो रहा है.

उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता. श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी की सुंदरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं. प्रेम के प्यासे वे गांवों के स्त्री-पुरुष ऐसे थकित रह गए जैसे दीपक को देखकर हिरनी और हिरन निस्तब्ध रह जाते हैं! गांवों की स्त्रियां सीताजी के पास जाती हैं; परंतु अत्यंत स्नेह के कारण पूछते सकुचाती हैं. बार-बार सब उनके पांव लगतीं और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं- हे राजकुमारी! हम विनती करते हैं, परंतु स्त्री-स्वभाव के कारण कुछ पूछते हुए डरती हैं. हे स्वामिनी! हमारी ढिठाई क्षमा कीजिएगा और हमको गंवारी जानकर बुरा न मानिएगा. ये दोनों राजकुमार स्वभाव से ही लावण्यमय (परम सुंदर) हैं. मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण ने कान्ति इन्हीं से पाई है. श्याम और गौर वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था है; दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं. शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के समान इनके मुख और शरद-ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं. हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममई सुंदर वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं और मन-ही-मन मुस्कुराईं.

उत्तम (गौर) वर्ण वाली सीताजी उनको देखकर संकोचवश पृथ्वी की ओर देखती हैं. वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं. हिरण के बच्चे के सदश नेत्रवाली और कोकिलकी-सी वाणीवाली सीताजी सकुचाकर प्रेमसहित मधुर वचन बोलीं- ये जो सहजस्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं. फिर सीताजीने लज्जावश अपने चंद्रमुख को आंचल से ढककर और प्रियतम (श्रीरामजी) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके कहा कि ये (श्रीरामचंद्रजी) मेरे पति हैं. यह जानकर गांव की सब युवती स्त्रियां इस प्रकार आनन्दित हुईं मानो कंगालों ने धन की राशियां लूट ली हों. वे अत्यंत प्रेम से सीताजी के पैर पड़कर बहुत प्रकार से आशीष देती हैं कि जबतक शेषजी के सिर पर पृथ्वी रहे, तबतक तुम सदा सुहागिनी बनी रहो और पार्वतीजी के समान अपने पति की प्यारी होओ. हे देवी! हमपर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना). हम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें. सीताजी ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा और मधुर वचन कह कहकर उनका भलीभांति सन्तोष किया. मानो चांदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो.

उसी समय श्रीरामचंद्रजी का रुख जानकर लक्ष्मणजी ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा. यह सुनते ही स्त्री-पुरुष दुखी हो गए. उनके शरीर पुलकित हो गए और नेत्रों में (वियोग की सम्भावना से प्रेम का) जल भर आया, उनका आनंद मिट गया और मन ऐसे उदास हो गए मानो विधाता दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो. कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया. तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित श्रीरघुनाथजी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उनके मनों को अपने साथ ही लगा लिया लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन-ही-मन दैव को दोष देते हैं. परस्पर बड़े ही विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उलटे हैं. वह विधाता बिलकुल निरंकुश (स्वतन्त्र), निर्दय और निडर है, जिसने चंद्रमा को रोगी (घटने-बढ़ने वाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया. उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है. जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाए.जब ये बिना जूते के रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन (सवारियां) व्यर्थ ही रचे. जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुंदर सेज (पलंग और बिछौने) किसलिए बनाता है? विधाता ने जब इनको बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया.

जो ये सुंदर और अत्यंत सुकुमार होकर मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार (विधाता) ने भांति-भांति के गहने और कपड़े व्यर्थ ही बनाए. जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं. कोई एक कहते हैं-ये स्वभाव से ही सुंदर हैं. इनका सौन्दर्य-माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है. ये अपने-आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाए नहीं हैं, हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आने वाली विधाता की करनी को जहां तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहां तक चौदहों लोकों में ढूंढ़ देखो, ऐसे पुरुष और ऐसी स्त्रियां कहां हैं? इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री-पुरुष बनाने लगा. उसने बहुत परिश्रम किया, परंतु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आए (पूरे नहीं उतरे). इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है. कोई एक कहते हैं- हम बहुत नहीं जानते. हां, अपने को परम धन्य अवश्य मानते हैं जो इनके दर्शन कर रहे हैं और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान हैं जिन्होंने इनको देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे. इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर सब नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यंत सुकुमार शरीर वाले दुर्गम मार्ग में कैसे चलेंगे.

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इनके कोमल और लाल-लाल चरणों (तलवों) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं. जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया? यदि ब्रह्मा से मांगे मिले तो हे सखि! हम तो उनसे मांगकर इन्हें अपनी आंखों में ही रखें! जो स्त्री-पुरुष इस अवसर पर नहीं आए, वे श्रीसीतारामजी को नहीं देख सके. उनके सौन्दर्य को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई! अबतक वे कहां तक गए होंगे? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का परम फल पाकर, विशेष आनन्दित होकर लौटते हैं. गर्भवती, प्रसूता आदि अबला स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े दर्शन न पाने से हाथ मलते और पछताते हैं. इस प्रकार जहां-जहां श्रीरामचंद्रजी जाते हैं, वहां-वहां लोग प्रेम के वश में हो जाते हैं. सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी के प्रफुल्लित करने वाले चंद्रमास्वरूप श्रीरामचंद्रजी के दर्शनकर गांव-गांव में ऐसा ही आनंद हो रहा है. जो लोग वनवास दिए जाने का कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राजा-रानी [दशरथ-कैकेई] को दोष लगाते हैं. कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया. स्त्री-पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेहभरी सुंदर बातें कह रहे हैं.

वे कहते हैं- वे माता-पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया. वह नगर धन्य है जहां से ये आए हैं. वह देश, पर्वत, वन और गांव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहां-जहां ये जाते हैं. ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है जिसके ये (श्रीरामचंद्रजी) सब प्रकार से स्नेही हैं. पथिकरूप श्रीराम-लक्ष्मण की सुंदर कथा सारे रास्ते और जंगल में छा गई है. रघुकुलरूपी कमल के खिलाने वाले सूर्य श्रीरामचंद्रजी इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मणजी सहित वन को देखते हुए चले जा रहे हैं. आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं. तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं. दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया! फिर जैसी छवि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूं- मानो वसन्त ऋतु और कामदेव के बीच में रति (कामदेव की स्त्री) शोभित हो. फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूं कि मानो बुध (चंद्रमा के पुत्र) और चंद्रमा के बीच में रोहिणी (चंद्रमा की स्त्री) सोह रही हो. प्रभु श्रीरामचंद्रजी के चरणचिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीताजी (कहीं भगवान के चरणचिह्नों पर पैर न टिक जाय इस बात से) डरती हुई मार्ग में चल रही हैं, और लक्ष्मणजी (मर्यादा की रक्षा के लिए) सीताजी और श्रीरामचंद्रजी दोनों के चरणचिह्नों को बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं. श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुंदर प्रीति वाणी का विषय नहीं है, अतः वह कैसे कही जा सकती है? पक्षी और पशु भी उस छवि को देखकर मग्न हो जाते हैं. पथिकरूप श्रीरामचंद्रजी ने उनके भी चित्त चुरा लिए हैं.

प्यारे पथिक सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन-जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग (जन्म-मृत्युरूपी संसार में भटकने का भयानक मार्ग) बिना ही परिश्रम आनंद के साथ तय कर लिया. आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्रीरामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जाएगा जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं. तब श्रीरामचंद्रजी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गए. कन्द, मूल, फल खाकर (रातभर वहां रहकर) प्रातःकाल स्नान करके श्रीरघुनाथजी आगे चले. सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्रीरामचंद्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए. श्रीरामचंद्रजी ने देखा कि मुनि का निवासस्थान बहुत सुंदर है, जहां सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है. सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरन्द रस में मस्त हुए भौरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं. बहुत-से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं. पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमलनयन श्रीरामचंद्रजी हर्षित हुए. रघुश्रेष्ठ श्रीरामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकिजी उन्हें लेने के लिए आगे आए. श्रीरामचंद्रजी ने मुनि को दंडवत किया. विप्रश्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया. श्रीरामचंद्रजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए. सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रम में ले आए.

श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकिजी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिए मधुर कन्द, मूल और फल मंगवाए. श्रीसीताजी, लक्ष्मणजी और रामचंद्रजी ने फलों को खाया. तब मुनि ने उनको विश्राम करने के लिए सुंदर स्थान बतला दिए. मुनि श्रीरामजी के पास बैठे हैं और उनकी मंगल-मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकिजी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है. तब श्रीरघुनाथजी कमलसदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले- हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं. सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है. प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेई ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई और कहा- हे प्रभु! पिता की आज्ञा का पालन, माता का हित और भरत-जैसे स्नेही एवं धर्मात्मा भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुण्यों का प्रभाव है. हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए. अब जहां आपकी आज्ञा हो और जहां कोई भी मुनि उद्वेग को प्राप्त न हो क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं. ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है.

ऐसा हृदय में समझकर वह स्थान बतलाइए जहां मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊं और वहां सुंदर पत्तों और घास की कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय निवास करूं. श्रीरामजी की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले- धन्य! धन्य! हे रघुकुल के ध्वजास्वरूप! आप ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन (रक्षण) करते हैं. हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी आपकी स्वरूपभूता माया हैं, जो कृपा के भंडार आपकी रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं. जो हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिरपर धारण करने वाले हैं, वही चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं. देवताओं के कार्य के लिए आप राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं. हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है. वेद निरन्तर उसका ‘नेति नेति’ कहकर वर्णन करते हैं. हे राम! जगत् दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं. आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं. जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है? वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है. हे रघुनन्दन! हे भक्तों के हृदय के शीतल करने वाले चन्दन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं.

हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं. आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य ही है; क्योंकि जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए. आपने मुझसे पूछा कि मैं कहां रहूं? परंतु मैं यह पूछते सकुचाता हूं कि जहां आप न हों, वह स्थान बता दीजिए. तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊं. मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्रीरामचंद्रजी (रहस्य खुल जाने के डर से) सकुचाकर मन में मुस्कुराए. वाल्मीकिजी हंसकर फिर अमृतरस में डुबोई हुई मीठी वाणी बोले- हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूं जहां आप सीताजी और लक्ष्मणजी-समेत निवास करिए. जिनके कान समुद्र की भांति आपकी सुंदर कथारूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरन्तर भरते रहते हैं, परंतु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं; तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्य रूपी मेघ के एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं.

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई. आपके गुण समूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी! आप उसके हृदय में बसिए, जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगन्धित पुष्पादि सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूंघती) है, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसादरूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं; जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य श्रीरामचंद्रजी (आप) के चरणों की पूजा करते हैं, और जिनके हृदय में श्रीरामचंद्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं; तथा जिनके चरण श्रीरामचंद्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं; हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए.जो नित्य आपके (रामनामरूप) मन्त्रराज को जपते हैं और परिवार सहित आपकी पूजा करते हैं, जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं; तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं; और ये सब कर्म करके सबका एकमात्र यही फल मांगते हैं कि श्रीरामचंद्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो; उन लोगों के मनरूपी मन्दिरों में सीताजी और रघुकुल को आनन्दित करने वाले आप दोनों बसिए.

जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षोभ है; न राग है, न द्वेष है; और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए, जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निन्दा) समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते- सोते आपकी ही शरण हैं, और आपको छोड़कर जिनके दूसरी कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके मन में बसिए. जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है; जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूपसे दुखी होते हैं, और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहनेयोग्य शुभ भवन हैं. हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मन्दिर में सीतासहित आप दोनों भाई निवास कीजिए. जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है, जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए.

जाति, पाति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देनेवाला घर सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए. स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहां-तहां केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है; और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए. जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरन्तर निवास कीजिए; वह आपका अपना घर है. इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्रीरामचंद्रजी को घर दिखाए. उनके प्रेमपूर्ण वचन श्रीरामजी के मन को अच्छे लगे. फिर मुनि ने कहा- हे सूर्यकुल के स्वामी ! सुनिए, अब मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूं. आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहां आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है. सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है. वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहारस्थल है. वहां पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूयाजी अपने तपोबल से लाई थीं. वह गंगाजी की धारा है, उसका मन्दाकिनी नाम है. वह सब पापरूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डाइन) रूप है. अत्रि आदि बहुत-से श्रेष्ठ मुनि वहां निवास करते हैं, जो योग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं. हे रामजी! चलिए, सबके परिश्रम को सफल कीजिए और पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिए.

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